भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा संचालित  सियान सदन – जहां संवेदना लोहे से भी मज़बूत है….

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सियान सदन – जहां संवेदना लोहे से भी मज़बूत है


सियान सदन: लोहे के शहर में संवेदना की छांव
भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना 1955 में भारत और तत्कालीन सोवियत रूस की साझेदारी से हुई थी। 1956 में जब रूसी विशेषज्ञों का दल संयंत्र की शुरुआत के लिए भारत आया, तो उन्हें दुर्ग स्टेशन के पास दो कमरों वाले एक गेस्ट हाउस में ठहराया गया। बाकी रूसी इंजीनियरों ने उसी परिसर में टेंट लगाकर रहना शुरू किया। यही वह जगह थी, जहां बाद में ‘भिलाई हाउस’ का निर्माण हुआ — एक स्थायी निवास स्थान, जिसने इस औद्योगिक रिश्ते को गरिमा दी। समय के साथ इस भवन का एक हिस्सा विकमानवीयसित होता गया और 2010 में वह ‘सियान सदन’ के नाम से जाना जाने लगा — एक ऐसा आश्रय जो लोहे के इस शहर में संवेदना की छांव बनकर उभरा।


22 मई 2010 को जब भिलाई इस्पात संयंत्र के तत्कालीन कार्यपालक निदेशक (मानव संसाधन) श्री पी. के. अग्रवाल ने सियान सदन का उद्घाटन किया था, तब यह मात्र 20 कमरों की सुविधा थी। लेकिन आज, इसकी दीवारों में बुज़ुर्गों की मुस्कराहटें, उनके अनुभव और आत्मसम्मान की गूंज समाई हुई है। 2024 में जब इसके 20 और कमरे जोड़े गए, तब यह सिर्फ एक विस्तार नहीं था — यह एक विचार था कि उम्र चाहे कोई भी हो, इज्ज़त और सहारा हर किसी का अधिकार है।
यहाँ गरम खाना, समय पर दवाइयाँ और चिकित्सा, सांस्कृतिक गतिविधियाँ और सबसे अहम — साथ मिलता है। हर साल 10 अक्टूबर को जब ‘वरिष्ठ जन दिवस’ मनाया जाता है, तो यह सिर्फ एक आयोजन नहीं होता, यह एक कृतज्ञ समाज की अभिव्यक्ति होती है।


बी. एल. धिंगड़ा: एक जीवन, एक युग, एक आदर्श
सियान सदन की आत्मा तब और गहराई पाती है, जब हम उसके निवासियों की कहानियों में उतरते हैं। उन्हीं में से एक हैं बी. एल. धिंगड़ा — एक ऐसा नाम, जो विभाजन के दर्द से लेकर राष्ट्र निर्माण की यात्रा तक का साक्षी रहा है।


पेशावर में जन्मे, लाहौर में पढ़ाई करते समय विभाजन की त्रासदी ने उन्हें विस्थापन की राह पर ला खड़ा किया। माँ की मृत्यु, शरणार्थी कैंप, और फिर ज़िंदगी को फिर से खड़ा करने की जद्दोजहद — यह उनकी शुरुआती कहानी है। 1949 में वायुसेना में भर्ती होकर देश सेवा की, और बाद में हिंदुस्तान स्टील के एक विज्ञापन ने उनके जीवन को नया मोड़ दिया। यूक्रेन जाकर प्रशिक्षण लेना, 1959 में भारत लौटकर भिलाई इस्पात संयंत्र की नींव में योगदान देना — यह सब सिर्फ नौकरी नहीं थी, यह देश के भविष्य को गढ़ने का एक अदृश्य संकल्प था।


1988 में सेवानिवृत्ति और फिर अकेलेपन के लंबे वर्ष। पैसों की कमी, पत्नी की मृत्यु,बेटियों के यहाँ कुछ दिन, किराए के मकान में जीवन, पर एक सुकून और घर की तलाश हमेशा रही।इस बीच कभी टूटे नही। 2016 में जब उन्होंने ‘सियान सदन’ के बारे में अख़बार में पढ़ा, तो एक नई सुबह ने दस्तक दी। उन्होंने चुपचाप एक पत्र लिखा — कोई शिकवा नहीं, बस सहारे की एक विनम्र दरख्वास्त। और भिलाई ने उन्हें फिर से अपनाया।
आज धिंगड़ा जी सियान सदन में हैं। हर सुबह उनके लिए सिर्फ चाय नहीं, साथियों की मुस्कान है। हर दोपहर भोजन के साथ सम्मान है, और हर शाम कुछ पल साझा करने के लिए एक कंधा है। स्वाभिमान के साथ अपनी कर्मभूमि भिलाई में परिवार,मित्रों और रिश्तों से जुड़े हुए हैं।


निष्कर्ष: जहां इस्पात में भी दिल धड़कता है
सियान सदन सिर्फ ईंट-पत्थरों से बनी इमारत नहीं, बल्कि भिलाई इस्पात संयंत्र की उस सोच का विस्तार है, जो अपने कर्मियों को कभी अकेला नहीं छोड़ती। बी. एल. धिंगड़ा जैसे कर्मयोगियों की कहानी यह बताती है कि कोई भी औद्योगिक इकाई, जब संवेदना और सामाजिक उत्तरदायित्व को अपना आधार बना ले, तो वह सिर्फ उत्पादन केंद्र नहीं, बल्कि एक जीवनदायिनी संस्था बन जाती है।
भिलाई इस्पात संयंत्र ने यह साबित किया है कि इस्पात केवल निर्माण का माध्यम नहीं, बल्कि सम्मान और संवेदना का प्रतीक भी बन सकता है।

सियान सदन — जहां हर बुज़ुर्ग को फिर से अपनेपन का एहसास होता है।


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